Friday, April 17, 2009

ज़िन्दगी की राह

ज़िन्दगी की राह मैं यूँ ही चला जा रहा हूँ मैं
टूटे हुए घरों को यूँ संजोता जा रहा हूँ मैं
चलते हुए काफिलों मैं शायद किसी की तलाश न हो मुझे
फिर भी हर शक्स को अपना बनाता जा रहा हूँ मैं

हर राह के मोड़ पर मैंने खुद को अकेला ही खडा पाया
जब साथ की मुझे ज़रुरत थी तो कोई आगे बढ़ के न आया
एक दिन सब इस कदर मुझको चाहेंगे
बस यही सपने इस दिल मैं संजोते जा रहा हूँ मैं

अब किसी और को चाहने की ख्वाहिश नहीं इस दिल को
एक तू ही बहुत है इस दिल को धड़काने के लिए
तू मिले न मिले ये तो नसीब होगा तेरा मेरा
मैं तो बस तेरी यादों को दिल मैं बसाये जा रहा हूँ

4 comments:

अनिल कान्त said...

क्या बात है बन्धु .....
आपकी इस खूबसूरत कविता के साथ आपका और आपके ब्लॉग का स्वागत है ....इस ब्लॉगजगत में

Sunil Bhaskar said...

Welcome to the blogger world, nice poem buddy.
Keep writing.

Unknown said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

bahut khoobsurat hai....jaan

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